छत्तीसगढ़

जब भी मृत्यु आएंगी, मैं इसे उत्सव कि तरह मनाऊंगी मैने कभी कोई त्यौहार खुशी से प्रसन्नचित से नही मनाया मुझे त्यौहार के नाम मात्र से ही अजीब सी बैचैनी होने लगती हैं भारती वर्मा

जब भी मृत्यु आएंगी, मैं इसे उत्सव कि तरह मनाऊंगी मैने कभी कोई त्यौहार खुशी से प्रसन्नचित से नही मनाया मुझे त्यौहार के नाम मात्र से ही अजीब सी बैचैनी होने लगती हैं । मेरा मन नहीं करता कि मैं किसी उत्सव में भाग लूं , लेकिन जब मैं मृत्युशैया पर रहूंगी और मुझे पता चलेगा कि, अब उत्सव मनाने की बारी आ गईं तो मैं हजार दुखों को पीछे छोड़ कर , बिस्तर में पड़े इसका आनंद लूंगी।
मैं मन ही मन भगवान को धन्यवाद करूंगी और अपने इस मृत्यु के लिए आभार प्रकट करूंगी, यह वक्त किसी उत्सव से काम नहीं होगा ।जहां मैं अब एकांत प्रिय जीवन से हटकर एक दूसरी दुनिया में प्रवेश करूंगी।

मैंने सुना है कि अंतिम वक्त में लोग ऐसे पलों को याद करते हैं जो उनके साथ घटी होती है, बचपन से लेकर जवानी बुढ़ापे तक का सभी अच्छी बुरी घटनाओं को याद करते हैं। अपने मरे हुए मां-बाप की छायाचित्र को याद करने की कोशिश करते हैं ,लेकिन एक लंबा वक्त बीत जाने के कारण उनकी शक्ल धुंधली सी हो जाती है।

उसे वे बार-बार याद करने की कोशिश करते हैं, वे अपनी जवानी के दिन को भी याद करते हैं और कुछ देर के लिए उसी यादों में खो जाते हैं । जवानी के दिन होती भी तो ऐसी ही हैं जिसे व्यक्ति ना चाहते हुएं भी भूल नही पाता, जहां प्रेम दिल्लगी अपनी अलग ही चरम सीमा में होती हैं ।युवावस्था में भावनाओ का एक अलग ही चरण याद करते हुए, अपनी दुबली पतली और निष्प्राय शरीर से मुस्कुराने की कोशिश करता हैं लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाता ।

शुभचिंतकों का रोना विलाप करना उसे धुंधली यादों से बाहर ला देती हैं ।अब वो बार बार उस बीते हुए जीवन में जानें का प्रयास करता हैं लेकिन मृत्यु का भय उसे फिर से खींच कर वर्तमान में ला पटाकता हैं ।

सुना हैं कि कई- कई बार तो ऐसा भी होता हैं कि
मृत्यु और तकलीफ का भय इतना ज्यादा होता हैं लोग कुछ बोलते भले ही नही लेकिन वे तड़प रहें होते हैं कि हमे नही मरना कोई बचा लो इसके साथ ही उसे अपने परिजनों को छोड़ के जाने का दुख इतना होता हैं कि बिना कुछ कहें मृत्युशैया में लेटे लेटे ही आंखों से लगातार आंसू बहता हैं ।
लगता ही नही कि इंसान रो रहा , शरीर में एक स्थिरता आ जाती हैं और इंसान विवश हो जाता हैं क्योंकि यहां कुछ कहने सुनने को बाकि कुछ रहा ही नहीं होता ।
बस आंखों को खोल कर एक टक लोगों को देखते रहता हैं ,कहे भी तो क्या इस असहनीय दर्द को किसी को बताया भी तो नही जा सकता। बातें अधूरी रह जाती हैं।

और उसी अश्रु के साथ ही आत्मा शरीर को छोड़ देती हैं फिर शरीर का कोई महत्व नही रह जाता। क्या किया? क्या कमाया? क्या बचाया? बस लोग ऐसे रोते हैं मानों वो किसी देवी देवता से कम नहीं जिसके चले जाने से लक्ष्मी मानों नाराज हो जाएंगी , धीरे धीरे सुबह से शाम होता हैं , शाम से रात , रात से फिर सुबह । फिर क्या ?लोग रो कर एक वक्त में शांत हो जाते हैं , और अपने काम धंधे में लग जाते हैं पता ही नही चलता कि कुछ हुआ भी था या नही ।

इस तरह बेमन से लाख बचने की कोशिश करते हुएं बहुत मशक्कत करने के बाद इंसान अपने शरीर को शोक के साथ त्यागता हैं ।

मैंने तो कभी किसी त्यौहार का उत्सव नही मनाया जैसे कि मैने पहले ही कहा था ।
बात यह हैं कि मुझे कोई उत्सव जैसा कुछ लगा ही नहीं , लेकिन मैं अपने अंतिम वक्त में बस मन ही मन होली, दीवाली, सभी त्योहारों का आनंद लूंगी, मेरी आंखें ना किसी को ढूढेंगी और ना ही कोई शिकवा शिकायत करेंगी । ना ही जीने की ललक होंगी, ना ही मैं उन लोगों को याद करूंगी जो मेरे लिए छाती पीट पीट कर रो रहें होंगे ।
मैं सारी चीजों का मन ही मन आनंद लूंगी , क्योंकि अब मैं आजाद होकर सुकून का रास्ता चुनने वाली हूं ये सोच कर चेहरे ka रंग बदल जायेगा ।
मैं अपने आप से बातें करूंगी आखिर वो उत्सव का पल आ ही गया , मैं भगवान का शुक्रिया करूंगी । पूरे मन से मृत्यु को स्वीकार करूंगी और उत्सव मनाऊंगी, स्वागत करूंगी कि आओ, बहुत देर कर दी आने में ?कब से इस उत्सव का इंतजार कर रही थी ।
बस एक टक करूण भाव से देखती रहूंगी मन में रंग गुलाल , पटाखे आदि के साथ आनंद अकेले लूंगी।
मृत्यु भी तो एक मजेदार उत्सव ही हैं, जब हम दुनिया में आते है तमाम दुख कष्ट तकलीफ झेलने के बाद जीवन बिताते हैं । और इस माया से मुक्ति मिल रही तो इसमें गलत क्या ? इसे भी तो खुशी से स्वीकार करना चाहिए । सोचती हूं सारे लोग आंसुओं में संलिप्त होंगे, मुझे पुकार– पुकार कर बचपन से अब तक की बातें कहेंगे लेकिन मुझे कोई फर्क नही पड़ेगा।
मैं अपने में मग्न रहूंगी ,और इसी के साथ आहिस्ता आहिस्ता मेरी सांस थमती जाएंगी।
और एक हल्की मुस्कान के साथ मैं नए दुनिया में प्रवेश कर लूंगी ।

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